Dohe Tulsidas with meaning in hindi

Dohe Tulsidas with meaning in hindi |तुलसीदास के दोहे हिंदी में अर्थ सहित 

गोस्वामी तुलसीदास जी के दोहेे हिंदी में सरल अर्थ सहित प्रस्तुत हैं आपके समक्ष। दोहे जो थोड़े से शब्दो में गहन गहराई कह देते हैं। दोहे जिनके भाव सामान्य जीवन की प्रेरणा देते हैं, उत्साहित करते हैं। दोहे जो सत्यता से पहचान करवाते हैं, जीवन की कड़वी सच्चाई दर्शाते हैं। जीवन की अच्छाई बताते हैं।

दोहे जिनके रचियता अपने जीवन के अपने अनुभव और अपनी कठोर तपस्या अथवा कहें कि वो अपने जिन आदर्शो पर चले, बिना कोई समझौता किए। अपना वो सारा अनुभव बांटते हैं। मानव के अज्ञान से बंद चक्षुओं को खोलते हैं। 

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Tulsidas ji ke dohe arth sahit| जीवन को प्रेरणा और सीख देते तुलसीदास जी के दोहे हिंदी में 

महाकवि गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित दोहे जिन्हे हिंदी में सरल अर्थ और भावार्थ के साथ साझा किया जा रहा है। तुलसीदास जी का हर दोहा बहुत ही गहराई की बात बता रहा है। पढ़िए और अपनी समझ से विवेचना कीजिए तुलसीदास के दोहे अर्थ और भावार्थ के साथ।

1. तुलसी नर का क्या बड़ा? समय बड़ा बलवान।

भीलां लूटी गोपियाँ, वही अर्जुन वही बाण।। 

सतलार्थ:- हे तुलसीदास मनुष्य का क्या बड़ा है? बड़ा तो समय है। जब भीलों ने गोपियों को लुटा तब अर्जुन भी वहीं थे अपने बाणों के साथ।

भावार्थ:- तुलसीदास जी के दोहे का भाव है कि हे मानव आपके हाथ में कुछ नही है। आप बेवजह स्वयं को स्थापित करने पर तुले हैं। संसार में समय से बड़ा कोई नही है। संसार में जो होता है वह समयानुसार ही घटता है। दुनिया के सबसे बड़े धनुर्धर अर्जुन अपने विविध अस्त्र शस्त्रों के साथ वहीं थे जब भीलों ने गोपियों पर आक्रमण किया, तो वो भी कुछ नहीं कर पाए थे।

2. तुलसी मीठे बचन  ते सुख उपजत चहुँ ओर।

बसीकरन इक मंत्र है परिहरू बचन कठोर।।

सरलार्थ:- हे तुलसीदास अपनी वाणी को मधुर रखिए क्योंकि यह सुख की सबसे सरल युक्ति है। यह एक वशीकरण मंत्र की भांति है परंतु कटु वचन गलत हैं।

भावार्थ:- तुलसीदास जी कहते हैं मीठा बोलो, और ऐसा करने पर कोई मोल नहीं लगता। जब इतनी आसानी से मीठी बोली के रूप में हमारे पास सुख प्राप्ति हेतु वशीकरण मंत्र है, तो क्यों कड़वी वाणी बोलकर हम नफरत रूपी कठोरता की ओर जाएं।

3. तुलसी देखि सुबेषु भूलहिं मूढ़ न चतुर नर।

सुंदर केकिहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि।।

सरलार्थ:- तुलसीदास सुंदरता के पीछे छुपी कमी को ना तो कोई गंवार ही पहचान पाता है और ना हि चतुर पुरुष। जैसे मोर की वाणी पर हम मोहित रहते हैं परंतु उसके भोजन की ओर हमारा ध्यान ही नही जाता कि वह सांप को खाता है।

भावार्थ:- दोहे का स्पष्ट मतलब है कि सुंदरता के प्रति आसक्ति हमे उसके पीछे की बुराइयां नहीं देखने देती।

4. राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार।

तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर।।

सरलार्थ:- राम नाम मणि के समान चमकने वाला दीपक है जो तेरे मुख द्वार पर रखा है। अगर अपने अंदर बाहर उजाला चाहता है तो क्यों न इसे अपना।

भावार्थ:- तुलसीदास जी के दोहे का मतलब है कि हे मानव अगर अपने चारो ओर, इस संसार में और अपनी अंतरात्मा में उजाला करना है तो अपने मुखद्वार से भीतर कर अपनी जिह्वा पर लाकर राम नाम का जाप कर।

5. लसी पावस के समय, धरी कोकिलन मौन।

अब तो दादुर बोलिहं, हमें पूछिह कौन।।

सरलार्थ:- बरसात के समय कोयल अपना कलरव बंद कर देती हैं। क्योंकि उन्हे लगता है अब तो मेढक बोलेंगे हमे अब कौन पूछने वाला है।

भावार्थ:- भाव स्पष्टत: यह है कि जब मूर्ख बोलने लगे तो समझदार लोग चुप्पी साध लेते हैं। क्योंकि उन्हे पता होता है कि अब इनका बोलने का समय है, हमे सुनने वाले नही हैं यहां तो क्यों बेवजह अपनी ऊर्जा व्यय की जाए।

6. नामु राम  को कलपतरु कलि कल्यान निवासु।

जो सिमरत भयो भाँग ते तुलसी तुलसीदास।।

सरलार्थ:- राम नाम कल्पवृक्ष के समान है, जिसके जप से कलियुग में कल्याण ही कल्याण का वास है। उसके सुमरने से भांग जैसा तुलसीदास तुलसी के समान हो गया।

भावार्थ:- तुलसीदास के इस दोहे में श्रीराम के नाम की महिमा का बखान करते हुए तुलसीदास जी कहते हैं कि इस कलयुग में राम नाम एक कल्पवृक्ष है, राम नाम का सुमरण करने से भांग भी असभ्य होते हुए पवित्र तुलसी में बदल सकती है। तो क्यों न हम भी इसी का सुमिरन करें।

कलि:- चारो युगों में अंतिम युग 

कल्पवृक्ष:- ऐसा वृक्ष जिसके नीचे खड़े होकर मंशा करने से मनचाहा फल मिलता है।

7. सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु।

बिद्यमान  रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु।।

सरलार्थ:- समर्थ लोग अपना सामर्थ्य युद्ध में दिखाते हैं न कि जबान से कहकर। कायर लोग अपना बखान अपनी जबान से करते रहते हैं।

भावार्थ:- तुलसीदास जी के इस दोहे से अभिप्राय है कि, सुर अर्थात देवता, परंतु यहां समर्थ लोगो के लिए प्रयुक्त किया गया है। तो जिनमे कुछ करने शक्ति होती है वे करके दिखाते हैं न कि बोलकर, परंतु जिनके वश का कुछ नही होता वे बेवजह अपना बखान स्वयं ही करते फिरते हैं।

8. काम क्रोध मद लोभ की, जौ लौं मन में खान।

तौ लौं पण्डित मूरखौं, तुलसी एक समान ।।

सरलार्थ:- काम(रतिक्रिया), नशा, गुस्सा और लालच इनकी लौ अगर विद्वानों में भी जागती है तो फिर, ज्ञानियों और मूर्खों में कोई अंतर नही होता।

भावार्थ:- तुलसीदास जी के इस दोहे में बताया गया है कि मनुष्य के बैरी ये चार गुण जिनमे व्यभिचार, झगड़ालू स्वभाव, लालच और नशा ये इतने बुरे हैं कि किसी सज्जन पुरुष को भी बद और मूर्खों की श्रेणी में लाकर खड़ा कर देते हैं।

9. तुलसी इस संसार में, भांति भांति के लोग।

सबसे हस मिल बोलिए, नदी नाव संजोग।।

सरलार्थ:- स्वयं को संबोधित करते हुए तुलसीदास जी कहते हैं कि हे तुलसी इस संसार में भांति भांति के लोग हैं। सबसे हंस बोलकर रहना चाहिए क्योंकि कोई नदी है तो कोई नाव है।

भावार्थ:- इस संसार में एक सा कुछ नही है। लोग अलग अलग स्वभाव के हैं। उससे यह नहीं कि किसी से कोई बैर भाव रखे सबसे मेल मिलाप रखना चाहिए। नदी डुबाने का सामर्थ्य रखती है तो नाव बचाने का, क्या उनमें आपसी मेल नहीं है, रहती तो वो साथ ही हैं।

10. मुखिया मुखु सो चाहिऐ खान पान कहुँ एक।

पालइ पोषइ सकल अंग तुलसी सहित बिबेक।।

सरलार्थ:- हमारा मुंह हमारे शरीर का मुखिया है। खाने पीने की जितनी चीजे हैं हम इसी से ग्रहण करते हैं। परंतु वह सब कुछ स्वयं के पास न रखकर, सबकुछ वहां बांट देता है जहां जिसकी जरूरत है।

भावार्थ:- तुलसीदास के दोहे का अर्थ समझकर भाव यह निकलता है कि मुखिया चाहे कोई भी हो परिवार का, समाज का, देश का, उसे चाहिए कि वह हमारे मुंह की भांति कार्य करे। जिस तरह मुंह मुखिया है शरीर के भीतर हर जरूरत पूरी करने का उसी तरह मुखिया को भी चाहिए कि वह कार्य अपने विवेक से करे, और अपने विवेक से इस बात का भी ध्यान रखे कि किसको किस चीज की जरूरत है, और बिना कोई भेद भाव किए सबकी जरूरत अनुसार आपूर्ति करे। 

उम्मीद है आपको तुलसीदास जी के दोहे अर्थ एवं भावार्थ सहित पसंद आए होंगे। पोस्ट के बारे में कमेंट करके बताइएगा जरूर। आप अपनी पसंद भी साझा करे उन पर भी खरे उतरने की पूरी कोशिश करेंगे। धन्यवाद।

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